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जतिन दास पुण्यतिथि स्पेशल : उनका वो बम जिसने हिला दी अंग्रेज सरकार की नींव, जाने जीवन कहानी

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यतीन्द्र नाथ दास उर्फ जतीन्द्र नाथ दास उर्फ जतिन दास। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अनमोल हीरा, जिनकी आज यानी 13 सितंबर को पुण्यतिथि है। कोलकाता में जन्म हुआ। नौ साल के थे तभी मां ने दुनिया छोड़ दी। पिता बड़े जतन से उन्हें पढ़ने को प्रेरित कर रहे थे। वे पढ़ने तो जाते लेकिन उस समय आजादी का आंदोलन देश में चल रहा था, धीरे-धीरे बालक यतीन्द्र ने देश की आजादी में अपना योगदान देने का फैसला किया। महज 17 साल की उम्र में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े।

अंग्रेज पुलिस ने उन्हें अन्य आंदोलनकारियों के साथ गिरफ्तार कर लिया। अब वे स्कूल की जगह जेल पहुंच गए। आंदोलन जब धीमा पड़ा तो कुछ दिन बाद जेल से रिहा कर दिए गए।

जब यतीन्द्र नाथ का खून खौल उठा

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जेल में रहने के दौरान उनमें देश प्रेम का ज्वार बढ़ने लगा था। अब वे कुछ बड़ा योगदान देना चाहते थे। भारत माता को जल्दी से जल्दी आजाद देखना चाहते थे। जब वे असहयोग आंदोलन में कूदे तो उसे अंतिम जंग मान लिया। उन्हें लगा कि अंग्रेज इसी से देश छोड़कर भाग जाएंगे। पर, अंग्रेज कहीं नहीं गए। हां, असहयोग आंदोलन एक तरह से वापस ले लिया गया। वह महात्मा गांधी का अपना तरीका था। यतीन्द्र को यह बात पसंद नहीं आई। उनका खून खौल रहा था।

वे कुछ नया सोचते हुए आंदोलन में शामिल होते रहे और पिता के सुझाव पर कोलकाता में बीए करने को राजी हो गए। एडमिशन हो गया, कुछ दिन क्लासेज भी चलीं लेकिन इसी दौरान उनकी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज पुलिस ने फिर गिरफ्तार कर लिया।

जेल पहुंचकर उन्होंने देखा कि राजनीतिक कैदियों के साथ अफसर दुर्व्यवहार कर रहे हैं। जरूरी सुविधाएं भी नहीं मिल रही हैं। इनकी मांग को लेकर पहले उन्होंने अफसरों से बातचीत की। जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने जेल में ही भूख हड़ताल शुरू कर दी। उस समय यह कोई आसान काम नहीं था और 21 की उम्र में तो बिल्कुल नहीं। पहले जेल अफसरों ने उनके आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया।

20 दिन तक भूख हड़ताल पर रहे

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जेफ अफसरों को लग रहा था कि दो-चार दिन में आंदोलन की हवा निकल जाएगी। पर, यतीन्द्र तो 20 दिन तक भूख हड़ताल पर डटे रहे। अंत में जेल अधीक्षक ने न केवल उनसे माफी मांगी बल्कि रिहा भी कर दिया। भूखे रहने के बावजूद जब वे जेल से छूटे तो उत्साह दोगुना हो चुका था। अंग्रेज अफसर ने उनसे माफी जो मांग ली थी। जेल से निकल कर वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक शचीन्द्र नाथ सान्याल से मिले जो गर्म दल के आंदोलनकारी थे। थोड़ी देर में ही यतीन्द्र को लगा कि यह सही जगह है और वे गहरे तक उनसे जुड़ गए. वहीं यतीन्द्र न बम बनाना सीख लिया। अब वे पूरी तरह से स्वतंत्रता आंदोलन में डूब चुके थे।

भगत सिंह और चंद्रशेखर से मुलाकात

साल 1928 में उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह से हुई। फिर चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल भी मिले। उनकी प्रेरणा से यतीन्द्र ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए बम बनाना शुरू कर दिया। उन्हीं के बनाए बम से भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को सेंटर असेंबली पर बम फेंका था। यह एक ऐसा हमला था जिससे ब्रिटिश सरकार हिल गई।

आनन-फानन सबकी गिरफ़्तारी के आदेश हुए और एक-एक कर सब जेल भेज दिए गए, यतीन्द्र भी पकड़े गए। लाहौर जेल में रखकर इन पर सशस्त्र विद्रोह का आरोप लगाया गया। लाहौर जेल में यतीन्द्र ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनके साथ अन्य क्रान्तिकारी भी थे। मांग जरूरी सुविधाओं की थी, जो नहीं मिल पा रही थीं। बहुत कठिन परिस्थितियों में भारतीय क्रांतिकारी जेल में समय काट रहे थे।

जब उनके आंदोलन से अंग्रेज भी सहम गए

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यतीन्द्र का यह आंदोलन धीरे-धीरे चर्चा का विषय बन गया। अंग्रेज अफसर भी सहम से गए। उन्हें जबरन पाइप से दूध पिलाने का प्रयास किया गया। दर्द बढ़ता गया लेकिन वे झुके नहीं। आंदोलन जारी रखा। 63 दिन तक लगातार चले इस आंदोलन के बाद 13 सितंबर 1929 को उन्होंने अंतिम सांस ली। 27 अक्तूबर 1904 को दुनिया में आया एक बालक महज 25 साल की उम्र में देश पर मर मिटा।

अंतिम संस्कार में 5 लाख से अधिक लोग शामिल

यतीन्द्र के अंतिम संस्कार में पांच लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए। सड़कों पर लोगों का हुजूम था। लाहौर से कोलकाता तक रास्ते में बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी ने उन्हें कानपुर स्टेशन पर श्रद्धांजलि देने पहुंचे। हावड़ा स्टेशन पर सुभाष चंद्र बोस ने उनके अंतिम दर्शन किए। एक आंदोलनकारी की असमय जेल में मृत्यु के बाद उसकी लोकप्रियता ने अंग्रेजों के माथे पर बल ला दिया।

इसके बाद से उन्होंने किसी भी आंदोलनकारी का शव परिवार को नहीं सौंपा। फांसी के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शव गुपचुप सतलुज नदी के किनारे आधी रात अंतिम संस्कार कर दिए। सुभाष चंद्र बोस ने उनकी तुलना ऋषि दधीचि से की थी। उनकी मौत के बाद देश भर में प्रदर्शन हुए।