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झारखंड हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, लिव इन रिलेशन में बनाया गया सहमति से बना शारीरिक संबंध, रेप नहीं

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“लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के दौरान आपसी सहमति से शारीरिक संबंध को उसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता। झारखंड हाई कोर्ट ने ये महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने इस आधार पर रांची के बुढ़मू थाना क्षेत्र में दर्ज दुष्कर्म की प्राथमिकी को निरस्त कर दिया। झारखंड हाई कोर्ट के जस्टिस ए.के. चौधरी की अदालत ने एक अहम निर्णय सुनाते हुए कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप में सहमति से बने शारीरिक संबंध को दुष्कर्म नहीं माना जा सकता।

दरअसल पूरा मामला एक महिला द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी से संबंधित था, जिसमें उसने अपने साथी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (दुष्कर्म) और 406 (आपराधिक न्यासभंग) के तहत केस दर्ज कराया था। महिला ने आरोप लगाया था कि उसका साथी पिछले कई वर्षों से उसके साथ लिव-इन रिलेशनशिप में था और उसने उससे शारीरिक संबंध बनाए। इसके साथ ही उसने तीन लाख रुपये वापस न करने का आरोप भी लगाया।

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इस मामले में पुलिस ने प्राथमिकी के आधार पर कार्रवाई करते हुए आरोपित मतीयस सांगा को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। इसके बाद मतीयस सांगा ने झारखंड हाई कोर्ट में क्रिमिनल रिट याचिका दायर कर प्राथमिकी को निरस्त करने की मांग की। प्रार्थी के अधिवक्ता सूरज किशोर प्रसाद ने अदालत में दलील दी कि दोनों पक्ष वयस्क थे और 2014 से 2023 तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते थे।

यह स्पष्ट रूप से आपसी सहमति से बना संबंध था, जिसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता। अधिवक्ता ने यह भी तर्क दिया कि महिला द्वारा दिया गया तीन लाख रुपये एक दोस्ताना ऋण था, जिसे लौटाने में असमर्थता को आपराधिक अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।सरकार की ओर से अतिरिक्त लोक अभियोजक ने इस याचिका का विरोध किया और कहा कि आरोपित के खिलाफ गंभीर आरोप हैं, इसलिए प्राथमिकी को खारिज नहीं किया जाना चाहिए।

अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट के पूर्ववर्ती निर्णयों – महेश्वर तिग्गा बनाम राज्य झारखंड और सोनू उर्फ सुभाष कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य – का हवाला दिया। अदालत ने कहा कि यदि दो वयस्क लंबे समय तक लिव-इन रिलेशनशिप में रहे हैं और उनके बीच शारीरिक संबंध बने हैं, तो ऐसे मामलों में सहमति स्वतः सिद्ध होती है।

जस्टिस चौधरी ने कहा कि इस तरह की आपराधिक कार्रवाई का जारी रहना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस तरह के मामलों में लंबी जांच और मुकदमेबाजी न केवल अनावश्यक है बल्कि यह आरोपी के अधिकारों का हनन भी है। इसलिए अदालत ने प्राथमिकी और उससे संबंधित सभी कार्यवाही को निरस्त करने का आदेश दिया।